नई दिल्ली: जहां एक तरफ़ आर्थिक विकास की दौड़ में तेज़ी से आगे बढ़ रहे भारत में स्वास्थ्य के मामलों में निराशाजनक प्रगति दर्ज की गई है। वहीं, दूसरी ओर नवजात एवं पांच वर्ष से कम आयु वाले बच्चों के सांस और फेफड़ों से संबंधी कई बीमारियां सामने आई हैं। एक शोध में यह बात सामने आई है कि सांस संबंधी रोगों का समय पर पता लगाकर बच्चे के जन्म लेने से पहले गर्भ में ही उसका उपचार किया जा सकता है।
एम्स की वरिष्ठ चिकित्सक एवं प्रोफेसर नूतन अग्रवाल ने कहा कि “आज भी बड़ी संख्या में नवजात बच्चों की सांस एवं फेफड़ों से संबंधी रोगों के कारण उनकी मृत्यु हो रही है, क्योंकि उनके फेफड़ों में होने वाली समस्या के कारण वे ठीक तरह से सांस नहीं ले पाते हैं”। अपने शोध में उन्होंने कहा कि नवजात बच्चों में ऐसे सांस संबंधी रोग का सामान्य उपचार नहीं है। उन्हें कोर्टीसोल दिया जाता था। हालांकि बाद में रोग के पता चलने के बाद उन्हें ट्रैकिया के जरिए सर्फेकटेंट दिया जाने लगा है। डा. अग्रवाल ने कहा कि नए शोध में हमने बच्चे में रोग का समय पर पता लगाकर, उसके जन्म से पहले ही अल्ट्रा साउंड के मार्गदर्शन में सर्फेकटेंट को फ्लूविड में डालकर फेफड़ों से संबंधी कमी को दूर कर दिया था।
उन्होंने दावा किया कि इस प्रक्रिया से नवजात के उपचार में सात गुना सुधार दर्ज किया गया है। यूनाइटेड नेशंस चिल्ड्रेन्स इमर्जेंसी फंड (यूनिसेफ) की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2015 में भारत में पांच साल से कम उम्र के करीब 12.6 लाख बच्चों की मृत्यु ऐसी बीमारियों के चलते हो गई, जिनका इलाज करना मुमकिन नहीं था।
यूनिसेफ की रिपोर्ट में कहा गया है कि बाल मृत्यु दर, पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु की स्थिति चिंताजनक है। साल 2015 में भारत में करीब 2.5 करोड़ बच्चों का जन्म हुआ, जिनमें से करीब 12 लाख बच्चों की मृत्यु पांच साल की आयु से पहले ही ऐसी बीमारियों के चलते हो गई, जिनका निदान या उपचार करना मुमकिन नहीं था। भारत में जन्म के समय सामान्य से कम वज़न वाले शिशुओं के सबसे ज़्यादा मामले सामने आते हैं। देश में नवजात मृत्यु दर भी काफी तेज़ी से बढ़ रहा है, जो काफी चिंताजनक मामला है।
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